शिवसूत्र (Śiva-Sūtra) — सूत्र और सरल हिन्दी भावार्थ (1-77)

#संस्कृत (सूत्र)सरल हिन्दी भावार्थ
1अ इ उ ण्प्रारम्भिक स्वर-बीज; चेतन-ध्वनि का आधार।
2ऋ ऌ क्सूक्ष्म स्वर-समूह; अन्तर्ज्ञान के अक्षर।
3ए ओ ङ्और स्वरों का समूह; ध्यान में इनका उपयोग।
4ऐ औ च्उच्च स्वर-समूह; समाधि के अनुभव हेतु।
5ह य व र ट्विशेष व्यंजन-समूह; चेतन-शक्तियों के संकेत।
6ल ण्‘ल’ और नाद का सम्बन्ध; केन्द्रित ऊर्जा।
7ञ म ङ ण न म्ध्वनि-समूह; चित्त-विभाजन के सूचक।
8झ भ ञ्ध्वनि-बीज; ध्यान के बीजारोपण हेतु।
9घ ढ ध ष्सघन ध्वनि-शक्ति; अन्तर्ज्ञान की सूक्ष्म चाल।
10ज ब ग ड द श्चेतना-ध्वनि की और परतें; अनुभव के रूप।
11ख फ छ ठ थ च ट त व्बहु-वर्ण समूह; चित्त के विविध केन्द्र।
12क प य्मूल ध्वनि-बीज; आत्म-रचना के सूचक।
13श ष स र्शुद्ध-ध्वनि समूह; निरीक्षण की क्षमता।
14ह ल्ह और ल का संयोजन; साम्य और समत्व।
15चैतन्यमात्माचेतना ही आत्मा है।
16ज्ञानं बन्धःसीमित ज्ञान बन्धन है।
17योनिवर्गः कलाशरीरम्शक्ति-वर्गों से शरीरों का समूह बनता है।
18ज्ञानाधिष्ठानं मातृकामातृका (अक्षर-शक्ति) ज्ञान का आधार है।
19उद्यमो भैरवःसत्-जागरण (उद्यम) ही भैरव-अनुभव है।
20शक्तिचक्रसन्धाने विश्वसंहारःशक्तियों के मेल से जगत का परिवर्तनीय स्वरूप समाप्त/परिवर्तन होता है।
21जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्याभोगसंभवःजाग्रत/स्वप्न/सुषुप्ति में भी तुरीय-अनुभव संभव है।
22ज्ञानं जाग्रत्जाग्रत अवस्था ज्ञान का क्षेत्र है।
23स्वप्नो विकल्पाःस्वप्न केवल विकल्प/कल्पना है।
24अविवेको मायासौषुप्तम्अविवेक ही मायामय सुषुप्ति है।
25त्रितयभोक्ता वीरेशःतीनों अवस्थाओं का भोक्ता परमेश्वर है।
26विस्मयो योगभूमिकाःविस्मय (आश्चर्य) योग की भूमि है — मन खुलता है।
27इच्छा शक्तिरुमा कुमारीइच्छा-शक्ति ही शक्तिस्वरूप है (उमा-कुमारी का रूप)।
28दृश्यं शरीरम्दृश्यमान जगत शरीर-रूप है।
29हृदये चित्तसंघट्टाद् दृश्यस्वापदर्शनम्हृदय में चित्त के संघटन से दृश्य तथा स्व-दर्शन होता है।
30शुद्धतत्त्वसन्धानाद् वा अपशुशक्तिःशुद्ध तत्व-अन्वेषण से अपशक्ति (अशुद्ध शक्ति) नष्ट होती है।
31वितर्क आत्मज्ञानम्विवेक/वितर्क से आत्म-ज्ञान मिलता है।
32लोकानन्दः समाधिसुखम्लोकानन्द (संसार-आनन्द) से समाधि-सुख मिलता है।
33शक्तिसन्धाने शरीरोत्पत्तिःशक्ति-साधना से शरीरोत्पत्ति/अनुभव उत्पन्न होता है।
34भूतसन्धान भूतपृथक्त्व विश्वसंघट्टाःभूतों के संधान से भूत-पृथक्त्व व विश्व-संगठित होता है।
35शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्व सिद्धिःशुद्ध विद्या के उदय से चक्रेश (सिद्धि) की प्राप्ति।
36महाह्रदानुसन्धानान्मन्त्रवीर्य अनुभवःगहन हृदय-अनुसन्धान से मन्त्र-वीर्य का अनुभव होता है।
37चित्तं मन्त्रःचित्त ही मन्त्र है — चित्त-नियमन मन्त्र की शक्ति दिखाता है।
38प्रयत्नः साधकःप्रयत्न ही साधक का मुख्य आधार है।
39विद्याशरीरसत्ता मन्त्ररहस्यम्विद्या-शरीर ही मन्त्र का रहस्य है; अभ्यास से रहस्य प्रकट।
40गर्भे चित्तविकासोऽविशिष्ट विद्यास्वप्नःगर्भ समान चित्त-विकास अविशिष्ट विद्या-स्वप्न है।
41विद्यासमुत्थाने स्वाभाविके खेचरी शिवावस्थाविद्या-उत्थान से स्वाभाविक खेचरी (उच्च) शिव-अवस्था आती है।
42गुरुरुपायःगुरु ही उपाय है — गुरु के मार्गदर्शन से सिद्धि।
43मातृकाचक्रसम्बोधःमातृका-चक्र का बोध साधक को उन्नत करता है।
44शरीरं हविःशरीर हवन-भूति है — समर्पण/आहुति से परिवर्तन।
45ज्ञानं अन्नम्ज्ञान ही आहार है — चित्त का पोषण।
46विद्यासंहारे तदुत्थ स्वप्नदर्शनम्विद्या-लय पर उसके उठने से स्वप्न-दर्शन होता है।
47आणवोपाय आत्मा चित्तम्आणवोपाय में आत्मा और चित्त का समाघात।
48(पुनरुक्ति) ज्ञानं बन्धःसीमित ज्ञान बन्धन है (स्मरण/सुधार हेतु पुनरुक्त)।
49कलादीनां तत्त्वानां अविवेको मायाकलादि-तत्त्वों में अविवेक ही माया का कारण।
50शरीरे संहारः कलानाम्शरीर में कलाओं (इन्द्रियाओं) का संहार साधना से संभव।
51नाडी संहार भूतजय भूतकैवल्य भूतपृथक्त्वानिनाड़ी-नियमन से भूतों पर विजय, कैवल्य और पृथक्त्व की प्राप्ति।
52मोहावरणात् सिद्धिःमोह के आवरण हटने पर सिद्धि होती है।
53मोहजयाद् अनन्ताभोगात् सहजविद्याजयःमोह को जीतकर अनन्त-आनन्द व सहज विद्या का विजय।
54जाग्रद् द्वितीयकरःजाग्रत की द्वितीय पहचान/अवस्था।
55नर्तक आत्माआत्मा ही नर्तक है — क्रियात्मक कर्ता।
56रङ्गोऽन्तरात्माआंतरिक रंग/अवस्था ही अनुभव-मंच।
57प्रेक्षकाणीन्द्रियाणिइन्द्रियाँ ही दर्शक हैं — अनुभव के साधन।
58धीवशात् सत्त्वसिद्धिःनियमितता/धैर्य से सत्त्व की सिद्धि।
59सिद्धः स्वतन्त्रभावःसिद्ध होने पर स्वतन्त्रभाव आता है।
60यथा तत्र तथान्यत्रएक अवस्था की प्राप्ति से सर्वत्र वह स्थिति व्यवस्थित होती है।
61विसर्गस्वाभाव्याद् अबहिः स्थितेस्तत्स्थितिःविसर्ग के स्वाभाव में रहते हुए भी स्थित रहना।
62बीजावधानम्बीज (मंत्र/ध्यान) पर दृढ़ ध्यान।
63आसनस्थः सुखं ह्रदे निमज्जतिआसन में सुखपूर्वक बैठकर हृदय में मग्न होना।
64स्वमात्रा निर्माणं आपादयतिअपनी मात्राओं का निर्माण/रचना स्वयं करता है।
65विद्या अविनाशे जन्म विनाशःअविनाशी विद्या से जन्म-बंधन का नाश।
66कवर्गादिषु माहेश्वर्याद्याः पशुमातरःविभिन्‍न मार्गों में माहेश्वरी/शिवत्व का प्रभाव पशु-वश को भी मात देता है।
67त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम्तीन अवस्थाओं में चौथे (तुरीय) का लगातार स्नेह/प्रवेश आवश्यक।
68मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत्पूर्ण मग्न होकर अपने चित्त में प्रवेश करना।
69प्राण समाचारे समदर्शनम्प्राण संचरण में समदर्शिता प्राप्त होती है।
70मध्येऽवर प्रसवःमध्यवर्ती अवस्था से नया आध्यात्मिक जन्म होता है।
71मात्रास्वप्रत्यय सन्धाने नष्टस्य पुनरुत्थानम्मात्रा-प्रत्यय के समन्वय से खोई हुई चीज़ पुनः उठ खड़ी होती है।
72शिवतुल्यो जायतेऐसा साधक शिवतुल्य (सम) हो जाता है।
73शरीरवृत्तिर्व्रतम्शरीर का विनियम (वृत्ति) ही व्रत/नियम है।
74कथा जपःकथा-श्रवण और जप साधना के अंग हैं।
75दानं आत्मज्ञानम्सच्चा दान असल में आत्म-ज्ञान के समान है।
76योऽविपस्थो ज्ञाहेतुश्चजो अविपस्थ (स्थित) है वही ज्ञान का कारण है।
77ॐ तत् सत्ॐ तत् सत् — परम सत्य/चेतना का उद्घोष।