1 | अ इ उ ण् | प्रारम्भिक स्वर-बीज; चेतन-ध्वनि का आधार। |
2 | ऋ ऌ क् | सूक्ष्म स्वर-समूह; अन्तर्ज्ञान के अक्षर। |
3 | ए ओ ङ् | और स्वरों का समूह; ध्यान में इनका उपयोग। |
4 | ऐ औ च् | उच्च स्वर-समूह; समाधि के अनुभव हेतु। |
5 | ह य व र ट् | विशेष व्यंजन-समूह; चेतन-शक्तियों के संकेत। |
6 | ल ण् | ‘ल’ और नाद का सम्बन्ध; केन्द्रित ऊर्जा। |
7 | ञ म ङ ण न म् | ध्वनि-समूह; चित्त-विभाजन के सूचक। |
8 | झ भ ञ् | ध्वनि-बीज; ध्यान के बीजारोपण हेतु। |
9 | घ ढ ध ष् | सघन ध्वनि-शक्ति; अन्तर्ज्ञान की सूक्ष्म चाल। |
10 | ज ब ग ड द श् | चेतना-ध्वनि की और परतें; अनुभव के रूप। |
11 | ख फ छ ठ थ च ट त व् | बहु-वर्ण समूह; चित्त के विविध केन्द्र। |
12 | क प य् | मूल ध्वनि-बीज; आत्म-रचना के सूचक। |
13 | श ष स र् | शुद्ध-ध्वनि समूह; निरीक्षण की क्षमता। |
14 | ह ल् | ह और ल का संयोजन; साम्य और समत्व। |
15 | चैतन्यमात्मा | चेतना ही आत्मा है। |
16 | ज्ञानं बन्धः | सीमित ज्ञान बन्धन है। |
17 | योनिवर्गः कलाशरीरम् | शक्ति-वर्गों से शरीरों का समूह बनता है। |
18 | ज्ञानाधिष्ठानं मातृका | मातृका (अक्षर-शक्ति) ज्ञान का आधार है। |
19 | उद्यमो भैरवः | सत्-जागरण (उद्यम) ही भैरव-अनुभव है। |
20 | शक्तिचक्रसन्धाने विश्वसंहारः | शक्तियों के मेल से जगत का परिवर्तनीय स्वरूप समाप्त/परिवर्तन होता है। |
21 | जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्याभोगसंभवः | जाग्रत/स्वप्न/सुषुप्ति में भी तुरीय-अनुभव संभव है। |
22 | ज्ञानं जाग्रत् | जाग्रत अवस्था ज्ञान का क्षेत्र है। |
23 | स्वप्नो विकल्पाः | स्वप्न केवल विकल्प/कल्पना है। |
24 | अविवेको मायासौषुप्तम् | अविवेक ही मायामय सुषुप्ति है। |
25 | त्रितयभोक्ता वीरेशः | तीनों अवस्थाओं का भोक्ता परमेश्वर है। |
26 | विस्मयो योगभूमिकाः | विस्मय (आश्चर्य) योग की भूमि है — मन खुलता है। |
27 | इच्छा शक्तिरुमा कुमारी | इच्छा-शक्ति ही शक्तिस्वरूप है (उमा-कुमारी का रूप)। |
28 | दृश्यं शरीरम् | दृश्यमान जगत शरीर-रूप है। |
29 | हृदये चित्तसंघट्टाद् दृश्यस्वापदर्शनम् | हृदय में चित्त के संघटन से दृश्य तथा स्व-दर्शन होता है। |
30 | शुद्धतत्त्वसन्धानाद् वा अपशुशक्तिः | शुद्ध तत्व-अन्वेषण से अपशक्ति (अशुद्ध शक्ति) नष्ट होती है। |
31 | वितर्क आत्मज्ञानम् | विवेक/वितर्क से आत्म-ज्ञान मिलता है। |
32 | लोकानन्दः समाधिसुखम् | लोकानन्द (संसार-आनन्द) से समाधि-सुख मिलता है। |
33 | शक्तिसन्धाने शरीरोत्पत्तिः | शक्ति-साधना से शरीरोत्पत्ति/अनुभव उत्पन्न होता है। |
34 | भूतसन्धान भूतपृथक्त्व विश्वसंघट्टाः | भूतों के संधान से भूत-पृथक्त्व व विश्व-संगठित होता है। |
35 | शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्व सिद्धिः | शुद्ध विद्या के उदय से चक्रेश (सिद्धि) की प्राप्ति। |
36 | महाह्रदानुसन्धानान्मन्त्रवीर्य अनुभवः | गहन हृदय-अनुसन्धान से मन्त्र-वीर्य का अनुभव होता है। |
37 | चित्तं मन्त्रः | चित्त ही मन्त्र है — चित्त-नियमन मन्त्र की शक्ति दिखाता है। |
38 | प्रयत्नः साधकः | प्रयत्न ही साधक का मुख्य आधार है। |
39 | विद्याशरीरसत्ता मन्त्ररहस्यम् | विद्या-शरीर ही मन्त्र का रहस्य है; अभ्यास से रहस्य प्रकट। |
40 | गर्भे चित्तविकासोऽविशिष्ट विद्यास्वप्नः | गर्भ समान चित्त-विकास अविशिष्ट विद्या-स्वप्न है। |
41 | विद्यासमुत्थाने स्वाभाविके खेचरी शिवावस्था | विद्या-उत्थान से स्वाभाविक खेचरी (उच्च) शिव-अवस्था आती है। |
42 | गुरुरुपायः | गुरु ही उपाय है — गुरु के मार्गदर्शन से सिद्धि। |
43 | मातृकाचक्रसम्बोधः | मातृका-चक्र का बोध साधक को उन्नत करता है। |
44 | शरीरं हविः | शरीर हवन-भूति है — समर्पण/आहुति से परिवर्तन। |
45 | ज्ञानं अन्नम् | ज्ञान ही आहार है — चित्त का पोषण। |
46 | विद्यासंहारे तदुत्थ स्वप्नदर्शनम् | विद्या-लय पर उसके उठने से स्वप्न-दर्शन होता है। |
47 | आणवोपाय आत्मा चित्तम् | आणवोपाय में आत्मा और चित्त का समाघात। |
48 | (पुनरुक्ति) ज्ञानं बन्धः | सीमित ज्ञान बन्धन है (स्मरण/सुधार हेतु पुनरुक्त)। |
49 | कलादीनां तत्त्वानां अविवेको माया | कलादि-तत्त्वों में अविवेक ही माया का कारण। |
50 | शरीरे संहारः कलानाम् | शरीर में कलाओं (इन्द्रियाओं) का संहार साधना से संभव। |
51 | नाडी संहार भूतजय भूतकैवल्य भूतपृथक्त्वानि | नाड़ी-नियमन से भूतों पर विजय, कैवल्य और पृथक्त्व की प्राप्ति। |
52 | मोहावरणात् सिद्धिः | मोह के आवरण हटने पर सिद्धि होती है। |
53 | मोहजयाद् अनन्ताभोगात् सहजविद्याजयः | मोह को जीतकर अनन्त-आनन्द व सहज विद्या का विजय। |
54 | जाग्रद् द्वितीयकरः | जाग्रत की द्वितीय पहचान/अवस्था। |
55 | नर्तक आत्मा | आत्मा ही नर्तक है — क्रियात्मक कर्ता। |
56 | रङ्गोऽन्तरात्मा | आंतरिक रंग/अवस्था ही अनुभव-मंच। |
57 | प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि | इन्द्रियाँ ही दर्शक हैं — अनुभव के साधन। |
58 | धीवशात् सत्त्वसिद्धिः | नियमितता/धैर्य से सत्त्व की सिद्धि। |
59 | सिद्धः स्वतन्त्रभावः | सिद्ध होने पर स्वतन्त्रभाव आता है। |
60 | यथा तत्र तथान्यत्र | एक अवस्था की प्राप्ति से सर्वत्र वह स्थिति व्यवस्थित होती है। |
61 | विसर्गस्वाभाव्याद् अबहिः स्थितेस्तत्स्थितिः | विसर्ग के स्वाभाव में रहते हुए भी स्थित रहना। |
62 | बीजावधानम् | बीज (मंत्र/ध्यान) पर दृढ़ ध्यान। |
63 | आसनस्थः सुखं ह्रदे निमज्जति | आसन में सुखपूर्वक बैठकर हृदय में मग्न होना। |
64 | स्वमात्रा निर्माणं आपादयति | अपनी मात्राओं का निर्माण/रचना स्वयं करता है। |
65 | विद्या अविनाशे जन्म विनाशः | अविनाशी विद्या से जन्म-बंधन का नाश। |
66 | कवर्गादिषु माहेश्वर्याद्याः पशुमातरः | विभिन्न मार्गों में माहेश्वरी/शिवत्व का प्रभाव पशु-वश को भी मात देता है। |
67 | त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम् | तीन अवस्थाओं में चौथे (तुरीय) का लगातार स्नेह/प्रवेश आवश्यक। |
68 | मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत् | पूर्ण मग्न होकर अपने चित्त में प्रवेश करना। |
69 | प्राण समाचारे समदर्शनम् | प्राण संचरण में समदर्शिता प्राप्त होती है। |
70 | मध्येऽवर प्रसवः | मध्यवर्ती अवस्था से नया आध्यात्मिक जन्म होता है। |
71 | मात्रास्वप्रत्यय सन्धाने नष्टस्य पुनरुत्थानम् | मात्रा-प्रत्यय के समन्वय से खोई हुई चीज़ पुनः उठ खड़ी होती है। |
72 | शिवतुल्यो जायते | ऐसा साधक शिवतुल्य (सम) हो जाता है। |
73 | शरीरवृत्तिर्व्रतम् | शरीर का विनियम (वृत्ति) ही व्रत/नियम है। |
74 | कथा जपः | कथा-श्रवण और जप साधना के अंग हैं। |
75 | दानं आत्मज्ञानम् | सच्चा दान असल में आत्म-ज्ञान के समान है। |
76 | योऽविपस्थो ज्ञाहेतुश्च | जो अविपस्थ (स्थित) है वही ज्ञान का कारण है। |
77 | ॐ तत् सत् | ॐ तत् सत् — परम सत्य/चेतना का उद्घोष। |